Explainer: 2008 के वित्तीय संकट और सिलिकॉन वैली बैंक संकट में क्या अंतर है? क्या ये नई मंदी की आहट है?

क्या सिलिकॉन वैली बैंक का डूबना 2008 जैसे वित्तीय संकट की शुरुआत है. इन सवालों के जवाब जानने के लिए आपको दोनों संकटों के कारणों, उनकी शुरुआत और उनके व्यापक असर को समझना होगा.

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सिलिकॉन वैली बैंक के फेल हो जाने की वजह से अमेरिका के बैंकिंग सिस्टम पर एक बार फिर सवाल खड़े होने लगे हैं. हफ्ते भर में सिल्वरगेट, सिग्नेचर और सिलिकॉन वैली बैंकों के फेल होने की वजह से दुनियाभर के फाइनेंशियल मार्केट में कोहराम मचा हुआ है. ग्लोबल फाइनेंशियल शेयर अबतक 465 बिलियन डॉलर गंवा चुके हैं, और अभी ये गिरावट थमी नहीं है.

इस बैंकिंग त्रासदी ने कई लोगों को साल 2008 की वित्तीय मंदी की याद दिला दी, कई लोगों ने सिलिकॉन वैली बैंक के डूबने की तुलना 2008 की मंदी से ही कर दी. लेकिन क्या वाकई ऐसा है.

क्या सिलिकॉन वैली बैंक का डूबना 2008 जैसे वित्तीय संकट की शुरुआत है. इन सवालों के जवाब जानने के लिए आपको दोनों संकटों के कारणों, उनकी शुरुआत और उनके व्यापक असर को समझना होगा.

क्या था साल 2008 का वित्तीय संकट

सबसे पहले आपको साल 2008 के फाइनेंशियल क्राइसिस के बारे में बताते हैं. 2008 का वित्तीय संकट अचानक नहीं आया था, इसकी शुरुआत 90s में ही हो गई थी. 1996 का डॉट कॉम बूम, जब अमेरिका की टेक्नोलॉजी कंपनियों के शेयर आसमान पर थे, लेकिन 2002 आते आते इस डॉट कॉम बूम का गुब्बारा फूट गया, लोगों ने शेयर बाजार से अपना पैसा निकालना शुरू कर दिया.

ये अमेरिका की सरकार के लिए संकट की घड़ी थी, क्योंकि लोग खर्च नहीं कर रहे थे. तब अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों को घटाना शुरू किया. साल 2000 में जो ब्याज दरें 6.5% थीं, 2001 में ये 1% के करीब आ गईं थी.

अब जब ब्याज दरें इतनी कम थीं, तो लोगों ने बैंकों में अपना पैसा रखने की बजाय लोन लेकर घर खरीदना शुरू कर दिया. नतीजा ये हुआ कि बड़ी तेजी से घरों की बिक्री बढ़ी और घरों के दाम भी आसमान पर पहुंच गए.

रियल एस्टेट में आई इस तेजी पर दुनिया भर के निवेशकों की नजर पड़ी. इन्वेस्टमेंट बैंकों ने भी अपना पैसा रियल एस्टेट में जमकर झोंका. इन्वेस्टमेंट बैंकों ने बैंकों से लोन खरीदना शुरू कर दिया. उन्होंने कई लोन को मिलाकर एक बंडल बनाया जिसे CDO यानी 'Collateralized debt obligation' कहा जाता है.

ऐसे पड़ी 2008 के वित्तीय संकट की नींव

इन्वेस्टमेंट बैंकों ने इन CDOs को बेचने के लिए क्रेडिट रेटिंग एजेंसीज से अच्छी रेटिंग ली और बेचना शुरू कर दिया. फिर क्या था, इन्वेस्टर्स इन CDOs को खरीदने के लिए लाइन लगाकर खड़े हो गए. डिमांड इतनी ज्यादा बढ़ी कि इन्वेस्टमेंट बैंकर्स को बैंकों से और लोन की जरूरत पड़ गई. बस यहीं से शुरुआत होती है उस फाइनेंशियल क्राइसिस की नींव की. बैंकों ने ज्यादा कमीशन कमाने के चक्कर में अब बिना जांच पड़ताल के ही लोगों को अनाप-शनाप लोन बांटना शुरू कर दिया, ऐसे लोन को सब-प्राइम लोन कहा जाता है.

खैर- ये सिलसिला लंबे समय तक चलता रहा, साल 2000 से लेकर साल 2007 तक इन्वेस्टमेंट बैंकर्स ने CDOs बेचकर करोड़ों डॉलर कमाए. मगर बैंकों ने जो भी होम लोन दिए थे उसमें से ज्यादातर लोन एडजस्टेबल रेट पर थे, यानी शुरुआत में लोन की दरें 1% रहती हैं, लेकिन कुछ सालों के बाद ये बढ़ती चली जाती हैं.

सब-प्राइम लोन ग्राहकों को इस बात का अंदाजा तक नहीं था, और साल 2008 की शुरुआत से ऐसे सब-प्राइम लोन ग्राहकों ने लोन डिफॉल्ट करना शुरू कर दिया, तो बैंकों ने उनके घरों को बेचकर पैसा वसूलना शुरू कर दिया था. अब चूंकि सब-प्राइम लोन ग्राहकों की संख्या बहुत ज्यादा थी और 2008 आते आते ब्याज दरें भी बढ़कर 5% के करीब आ चुकी थीं.

ऐसे में बैंकों को घर खरीदार भी मिलना मुश्किल हो गए और घरों के दाम जो कभी आसमान पर थे, तेजी से गिरना शुरू हो गए. ग्राहकों के तेजी से बढ़ते डिफॉल्ट और घरों की बिक्री नहीं होने से बैंक बुरी तरह फंस गए. इसका सीधा असर CDOs पर पड़ा, उनकी वैल्यू इतनी गिरी कि जीरो हो गई. कई इन्वेस्टर्स बर्बाद हो गए.

कौड़ियों के भाव हो गए CDOs

अब CDOs कोई नहीं खरीद रहा था, जबकि इस्वेस्टमेंट बैंकों के पास अब भी काफी बड़ी संख्या में CDOs पड़े हुए थे. मामला बिगड़ चुका था, अमेरिका के टॉप इन्वेस्टमेंट बैंक, जिसमें लीमन ब्रदर्स , बेयर स्टर्न्स, मेरिल लिंच शामिल हैं. ये सारे इन्वेस्टमेंट बैंक बर्बाद हो गए. इस क्राइसिस में बैंकों और इन्वेस्टमेंट बैंकों को करीब 450 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ था.

इस घटना का असर ये हुआ कि बिजनेसेज को लोन मिलना बंद हो गया, कंपनियों की फंडिंग की जरूरतें पूरी नहीं होने से लोगों की नौकरियां जाने लगीं, और बेरोजगारी 10% तक पहुंच गईं, हजारों लोगों को अपनी जॉब से हाथ धोना पड़ा.

अमेरिका की अर्थव्यवस्था से दुनिया की बाकी अर्थव्यवस्थाएं भी जुड़ी हैं, जिसकी वजह से अमेरिका से शुरू हुआ वित्तीय संकट दुनिया के दूसरे देशों तक भी पहुंचा. 16 महीने तक ये मंदी चली जिसे ग्रेट रिसेशन कहा जाता है, इस दौरान अमेरिकी के बाजार घुटनों पर आ गए, डाओ जोंस 49% तक टूटा. अमेरिका की GDP दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे ज्यादा गिरी. अमेरिका के साथ साथ दुनिया भर के बाजारों में भी हाहाकार मचा.

सिलिकॉन वैली बैंक में क्या हुआ?

ये तो रहा 2008 का सारांश, जिसमें ये समझ आता है कि 2008 का संकट दरअसल किसी एक बैंक की वजह से या किसी एक वित्तीय संस्थान की वजह से नहीं था, बल्कि ये पूरे बैंकिंग, फाइनेंशियल और इंश्योरेंस सिस्टम की नाकामी थी. जिसे लंबे समय तक नजरअंदाज किया गया. और जो भी बैंक या इन्वेस्टमेंट बैंक बर्बाद हुए उनका साइज बहुत बड़ा था, इसलिए उसका असर भी ग्लोबल हुआ.

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अब समझते हैं कि सिलिकॉन वैली बैंक में आखिर हुआ क्या, जिसकी वजह से इस पर ताला जड़ना पड़ा. दरअसल, ये बैंक स्टार्टअप्स को लोन देता है, जब स्टार्टअप्स को फंडिंग मिल रही थी, तब इस बैंक के शेयर भी खूब चढ़ रहे थे और जमकर कमाई भी हो रही थी, क्योंकि स्टार्टअप्स को जो भी फंडिंग मिलती ये बैंक में डिपॉजिट कर देते.

इसको ऐसे समझें कि साल 2017 में इसके पास 44 बिलियन डॉलर का डिपॉजिट था, 2021 के अंत में ये बढ़कर 189 बिलियन डॉलर हो गया. मगर समस्या ये थी कि सिलिकॉन वैली बैंक ने इन पैसों को लोन पर नहीं दिया, बल्कि उससे बॉन्ड्स खरीद लिए, और उस वक्त बॉन्ड्स पर आज के मुकाबले रिटर्न काफी कम था.

दूसरी बात ये कि सिलिकॉन वैली का एक बड़ा फोकस सिर्फ स्टार्टअप क्लाइंट्स पर रहता था, यानी इसका एक्सपोजर भी बहुत ज्यादा नहीं है. जबकि अमेरिका के दिग्गज बैंकों का बिजनेस मॉडल या पोर्टफोलिया बहुत ज्यादा डायवर्सिफाइड है. यानी किसी एक या दो सेगमेंट पर उनकी निर्भरता नहीं है.

इसलिए ऐसा कहना कि सिलिकॉन वैली बैंक का बंद होना एक और 2008 की मंदी की शुरुआत है, थोड़ा जल्दबाजी होगी.