टाटा ग्रुप की कंपनी टाइटन की शुरुआत एक घड़ी कंपनी के रूप में हुई, लेकिन देखते देखते इसने लाइफस्टाइल क्षेत्र में अपनी जड़ों को गहराई तक जमा लिया है. टाइटन की छतरी के नीचे घड़ियों के अलावा ज्वेलरी (Tanishq), चश्मे (Eyeplus), परफ्यूम के ब्रैंड आते हैं.
टाइटन को नई ऊंचाई तक पहुंचाने में अगर किसी ब्रैंड का हाथ रहा है तो वो है तनिष्क का, लेकिन ये भी सच है कि 1994 में जब तनिष्क को लॉन्च किया गया तो ये एक फ्लॉप ब्रैंड था, नौबत यहां तक आ गई कि लोगों ने रतन टाटा से ये कहना शुरू कर दिया कि वो अपने ज्वेलरी बिजनेस को ताला लगा दें, लेकिन जो चुनौतियों के सामने घुटने टेक दे, वो रतन टाटा नहीं.
पहले समझिए तनिष्क क्यों फेल हुआ?
पहले समझते हैं कि आखिर तनिष्क फेल क्यों हुआ, क्यों ये भारत के ज्वेलरी मार्केट में अपनी जगह बनाने में नाकाम रहा. तनिष्क को 1994 में टाइटन ने लॉन्च किया था. तनिष्क (Tanishq) शब्द का अर्थ जैसा कि जेरक्सेस देसाई ने बताया था, 'तन' का अर्थ शरीर और 'निष्क' का अर्थ सोने का आभूषण है. इन दोनों को मिलाकर तनिष्क बनाया गया. जेरक्सेस देसाई टाइटन कंपनी के पहले प्रबंध निदेशक थे.
टाइटन को इस बात का भरोसा था कि तनिष्क भारतीय बाजार में तहलका मचा देगी, जहां पर गोल्ड ज्वेलरी लोकल ज्वेलर्स से खरीदी जाती थी, टाइटन जैसा ब्रैंड जब मार्केट में उतरेगा तो लोग उसकी तरफ दौड़ेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि इसका उल्टा ही हुआ.
टाइटन को लगा कि भारत के प्राइस सेंसिटिव मार्केट है, इसलिए 22-कैरेट के बजाय कंपनी ने 18-कैरेट वाली ज्वेलरी को लॉन्च किया. ये करने के पीछे मकसद था ग्राहकों की पसंद और उनके व्यवहार को बदलना, ये कोशिश बुरी तरह फ्लॉप साबित हुई.
दरअसल, टाइटन जिस भारतीय बाजार को प्राइस सेंसिटिव समझ रही थी, दरअसल, ज्वेलरी के मामले में ये सोच उल्टी पड़ गई, लोग ज्वेलरी को सोसायटी में एक स्टेटस सिम्बल के तौर पर लेते हैं. सोने की शुद्धता को समृद्धि और संपन्नता से जोड़ा जाता है, इसको किसी भी दूसरी चीज जैसे घड़ी या कपड़ों से जोड़ना गलत सोच थी. हालांकि इस बात को समझते समझते टाइटन को करीब आधा दशक लग गया, तनिष्क का बिजनेस डूबता रहा, इस बात का भी दबाव बनाया गया कि तनिष्क के बिजनेस को बंद कर दिया जाए.
फिर भी हार नहीं मानी
इसके बावजूद टाइटन ने हार नहीं मानी, उसे उम्मीद थी कि वे भारतीयों को 18-कैरेट प्रोडक्ट को जरूर पसंद करेंगे, साल 2001 तक, टाइटन ने तनिष्क के घाटे को सहा, जो पिछले इसके 5 वर्षों में बढ़कर 150 करोड़ रुपये हो गया था. तनिष्क के खराब प्रदर्शन से टाइटन का शेयर बुरी तरह पिट रहा था, साल 2001 में ये 2 रुपये के निचले स्तर पर पहुंच गया.
अब समस्या कहां थी, जरा ये भी देखिए- तनिष्क से पहले, भारतीय ज्वेलरी सेक्टर काफी हद तक अनऑर्गनाइज्ड था. लोग लोकल ज्वेलर्स के पास से ही ज्वेलरी खरीदना पसंद करते थे, यही लोकल ज्वेलरी पूरे बाजार पर काबिज थे. ग्राहक इन पर भरोसा करते थे, पूरा ज्वेलरी मार्केट ही भरोसे के दम पर चलता था. ज्वेलरी की शुद्धता और कीमत को मापने का कोई पैमाना नहीं था. जो लोकल ज्वेलर ने कह दिया, ग्राहक उस पर भरोसा करते थे.
एक फैसला और बाजी पलटी
साल 2002 में McKinsey को टाइटन ने तनिष्क पर रिसर्च करने के लिए कहा. बोर्ड के सामने McKinsey ने ये अपनी रिपोर्ट रखी. रतन टाटा ने उसी समय फैसला लिया और उस समय के CEO स्वर्गीय जेरक्सेस देसाई पर छोड़ दिया. तनिष्क को यहां से एक रास्ता नजर आने लगा था. टाटा को समझ आने लगा था कि गलती कहां हो रही है.
गलती थी लोगों का विश्वास, दरअसल, सारा खेल ही भरोसे और विश्वास का था. सबसे पहला काम जो उन्होंने किया वह था 18 कैरेट के आभूषण बेचने की गलती को स्वीकार करना और सुधारना. उन्होंने तुरंत अपने सभी स्टोरों में 22 कैरेट की ज्वेलरी से भर दिया.
इसके अलावा टाइटन ने एक बड़ा इनोवेशन पेश किया जिसने उसकी किस्मत हमेशा के लिए बदल दी. उन्होंने सभी दुकानों में "Karatmeter" नामक एक डिवाइस रखवाया. ये सोने की शुद्धता की जांच करने का उपकरण था, जिसे जर्मनी से 10 लाख रुपये प्रति पीस के हिसाब से मंगवाया गया था. टाइटन का दांव चल गया था. यही दांव तनिष्क के लिए गेमचेंजर साबित हुआ. तनिष्क के स्टोर्स पर भीड़ जुटने लगी, यही तो चाहिए था, लोगों अपनी ज्वेलरी की जांच कराने के लिए लाइनों में लग गए.
"Karatmeter" के साथ, तनिष्क ने एक ऐड कैम्पेन भी चलाया, जहां उसने अपने ग्राहकों को अपने पुराने आभूषण लाने और उनके स्टोर में मुफ्त में उनकी शुद्धता की जांच कराने का ऑफर दिया. इस कैम्पेन ने से दुकानों पर ग्राहकों की भीड़ उमड़ने लगी. यहीं से शुरू तनिष्क के ज्वेलरी बिजनेस को नई चमक मिली.
पिछले साल कंपनी ने ज्वेलरी में लगभग 42,000 करोड़ रुपये की बिक्री की, करीब 40 लाख का कस्टमर बेस है और मार्केट शेयर करीब 9% का है.