ऊर्जा मंत्रालय ने रिन्युएबल एनर्जी (Renewable Energy) एजेंसियों के लिए टेंडर्स में सोलर एनर्जी के साथ दो घंटे के को-लोकेटेड स्टोरेज सिस्टम को शामिल करने को अनिवार्य कर दिया है. इसका मकसद पीक घंटों के दौरान डिमांड को पूरा करना और वेरिएबिलिटी से जुड़े मुद्दों को घटाना है.
18 फरवरी को जारी की गई एडवाइजरी में मंत्रालय ने कहा कि सोलर प्रोजेक्ट्स के साथ को-लोकेटिंग एनर्जी सिस्टम से स्टोरेज कैपेसिटी दिसंबर 2024 के आखिर के 4.86 गीगावॉट से बढ़कर 2030 तक 14 GW/28GWh तक पहुंच सकती है.
ESS की मौजूदा इंस्टॉल्ड कैपेसिटी में 4.75 GW पंप्ड हाइड्रो स्टोरेज और 0.11GW बैटरी एनर्जी स्टोरेज प्रोजेक्ट्स शामिल हैं. सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी की ओर से जारी नेशनल इलेक्ट्रिसिटी प्लान के मुताबिक 2031-32 तक 364 GW सोलर और 121 GW विंड कैपेसिटी का इंटिग्रेशन करने के लिए भारत को 73.93 GW सोलर और 411.4GWh विंड स्टोरेज कैपेसिटी की जरूरत होगी.
इसमें पंप्ड स्टोरेज से 25.69 GW/175.18GWh और बैटरी स्टोरेज से 47.24 GW/236.22 GWh शामिल होगा.
लक्ष्य को हासिल करने के लिए सभी रिन्युएबल एनर्जी एजेंसियां और स्टेट यूटिलिटीज को भविष्य के टेंडर्स में न्यूनतम दो घंटे के को-लोकेटेड स्टोरेज सिस्टम को शामिल करने की सलाह दी गई है. ये इंस्टॉल्ड सोलर पावर कैपेसिटी के 10% के बराबर है.
एडवाइजरी में जिक्र किया गया है कि इससे पीक डिमांड की अवधि के दौरान अहम समर्थन मिलेगा. बोली के दस्तावेज में उपयुक्त कंप्लायंस मैकेनिज्म का भी जिक्र किया जा सकता है, जिससे नॉन-सोलर घंटों के दौरान स्टोरेज की उपलब्धता सुनिश्चित हो.
एडवाइजरी में कहा गया है कि पावर डिस्ट्रीब्यूशन लाइसेंसीज रूफटॉप सोलर प्रोजेक्ट्स के साथ को-लोकेटेड स्टोरेज सिस्टम को अनिवार्य करने पर भी विचार कर सकते हैं. बैटरी कीमतों में हाल की गिरावट से भी शाम को पावर पर्चेज के घंटों को कम करने में मदद मिल सकती है.