भारत अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है. भारत आज एक चौराहे पर खड़ा है और अगले 25 वर्षों के दौरान उसके सामने एक लचीला आर्थिक विकास को साकार करने का लक्ष्य है. इस 25 वर्षों के काल-खंड को सरकार द्वारा देश का "अमृत काल" कहा जा रहा है. अर्थव्यवस्था के अन्य पहलुओं को अलग रखते हुए, आइए देखते हैं कि भारतीय मुद्रा रुपया 1947 के बाद से अन्य वैश्विक बेंचमार्क साथियों के मुकाबले कैसा परफारमेंस कर रहा है. किसी देश की मुद्रा के मूल्य को एक प्रमुख संकेतक माना जाता है ताकि देश के आर्थिक प्रगति का आकलन किया जा सके.
1947 के बाद से व्यापक आर्थिक मोर्चे पर बहुत कुछ हुआ है, जिसमें 1960 के दशक में खाद्य और औद्योगिक उत्पादन में मंदी के कारण आर्थिक संकट भी शामिल है. उसके बाद भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान का मुद्दा आ गया जिसकी वजह से हमारे खर्च तो बढ़े ही साथ ही देश को भुगतान संतुलन संकट का सामना करना पड़ा.
उच्च आयात बिलों के साथ भारत की अर्थव्यवस्ता थोड़ी लड़खड़ा गई क्योंकि विदेशी मुद्रा भंडार लगभग सूख गया था. रिपोर्टों के अनुसार, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार को रुपये के भारी अवमूल्यन के लिए जाना पड़ा था. रुपये का मूल्य अमेरिकी डॉलर के मुकाबले ₹ 4.76 से घटकर ₹ 7.5 हो गया.
फिर 1991 में, भारत फिर एक बार गंभीर आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा था क्योंकि देश अपने आयात के लिए भुगतान करने और अपने विदेशी ऋण दायित्वों को पूरा करने की स्थिति में नहीं था. फिर से, भारत डिफ़ॉल्ट के कगार पर था, देश की अर्थव्यवस्था को खोलने के लिए बहुत आवश्यक सुधारों की आवश्यकता थी.
इस संकट से उबरने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने कथित तौर पर रुपये का दो तेज चरणों में अवमूल्यन किया - क्रमशः 9 प्रतिशत और 11 प्रतिशत. अवमूल्यन के बाद, अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये का मूल्य लगभग 26 था.
स्वतंत्रता के दौरान तत्कालीन बेंचमार्क पाउंड स्टर्लिंग के मुकाबले ₹4 प्रति अमेरिकी डॉलर के मुकाबले लगभग ₹79 से ₹80 तक आने में पिछले 75 वर्षों में रुपये में ₹ 75 का अवमूल्यन हुआ है. मोतीलाल ओसवाल फाइनेंशियल सर्विसेज के विश्लेषक गौरांग सोमैया ने कहा, "इन वर्षों में रुपये की कमजोरी में कई कारकों का योगदान रहा है, जिसमें व्यापार घाटा अब 31 अरब डॉलर के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गया है जबकि स्वतंत्रता की शुरुआत में लगभग कोई घाटा नहीं था."
गौरांग सोमैया ने कहा, "हम उम्मीद करते हैं कि अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट जारी रह सकती है, लेकिन विदेशी मुद्रा भंडार में सुधार के लिए आरबीआई द्वारा बड़े पैमाने पर उठाए गए कदमों से मूल्यह्रास की गति धीमी हो सकती है."
भले ही गिरते रुपये से पूरी अर्थव्यवस्था को फायदा न हो, लेकिन एक अवमूल्यन मुद्रा के अपने गुण हैं क्योंकि यह निर्यात को बढ़ावा देने में सहायता करता है. रिसर्च एनालिस्ट दिलीप परमार ने कहा कि 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से, रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले सीएजीआर (चक्रवृद्धि वार्षिक विकास दर) पर 3.74 प्रतिशत की दर से मूल्यह्रास कर रहा है.”
2000 और 2007 के बीच, रुपया एक हद तक स्थिर हो गया क्योंकि देश में पर्याप्त विदेशी निवेश आया. लेकिन बाद में 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान इसमें गिरावट आई. "फिर जब हम अतीत को देखते हैं तो पाते हैं कि 2009 से प्रमुख मूल्यह्रास शुरू हुआ, 46.5 से अब 79.5 पर. 4.3 प्रतिशत सीएजीआर की दर से 2000 से 2009 तक लगभग इशमें कोई बदलाव नहीं दिखा यानि 46.7 से 46.5 तक ही का परिवर्तन नजर आया." श्री परमार ने कहा.
चूंकि आयात की लागत अधिक हो जाती है जिसकी वजह से घरेलू मुद्रास्फीति शुरू हो सकती है और नतीजतन अर्थव्यवस्था की क्रय शक्ति कम हो सकती है.
आयात की बढ़ती लागत से चालू खाता घाटा (current account deficit) भी बढ़ सकता है. अप्रैल-जुलाई 2022 के लिए, भारत का व्यापार घाटा 100.01 अरब डॉलर था.
व्यापार घाटा अगर बढ़ता जाएगा तो रूपए भी कमजोर होने लगेंगे. रिकॉर्ड के लिए, जुलाई में भारतीय रुपया पहली बार अमेरिकी डॉलर के मुकाबले मनोवैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण 80 के स्तर से नीचे फिसल गया क्योंकि कड़े ग्लोबल सप्लाई के बीच कच्चे तेल की ऊंची कीमतों ने अमेरिकी डॉलर की मांग को बढ़ा दिया.
वैश्विक विदेशी मुद्रा भंडार में अमेरिकी डॉलर के हिस्से की बात करें तो, यह इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से कम हो रहा है. दिसंबर 2021 के अंत तक 59 प्रतिशत के करीब गिर गया जो दो दशक पहले 70 प्रतिशत से ऊपर था. आरबीआई भी अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व को कम करने के लिए उत्सुक है क्योंकि उसने इस साल की शुरुआत में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए रुपये में भुगतान का निपटान करने के लिए एक तंत्र की घोषणा की, खासकर भारत के निर्यात के लिए. वह तंत्र लंबे समय में रुपये के अंतर्राष्ट्रीयकरण में मदद कर सकता है