देश में आजकल सैटेलाइट स्पेक्ट्रम को लेकर चर्चा गर्म है. 1990 की शुरुआत में 2G से चलता हुआ देश अब अब 6G की तैयारी में जुटा है, इस बीच सैटेलाइट को लेकर एक अलग ही जंग छिड़ गई है. तरंगों की इस आसमानी लड़ाई में मुकेश अंबानी की जियो और सुनील भारती मित्तल की एयरटेल के सामने हैं एलॉन मस्क, जो अपने स्टारलिंक के सैटेलाइट्स के जरिए भारतीय आसमान पर तरंगों का जाल बिछाना चाहते हैं. इस लड़ाई को समझने से पहले हम ये समझेंगे कि आखिर सैटेलाइट्स स्पेक्ट्रम में ऐसा क्या है जिसे हासिल करने की ऐसी होड़ मच गई है. इसके आने से हमारी आपकी जिंदगी में ऐसा क्या बदल जाएगा.
अभी जिस इंटरनेट का हम इस्तेमाल करते हैं, उसका स्पेक्ट्रम टेरीटोरियल बेसिस पर हमें रिसीव होता है. ये हमारे पास हमारे गिर्द-गिर्द लगाए गए मोबाइल टावर्स के जरिए पहुंचता है. जैसे घर का वाई-फाई या मोबाइल में जो नेटवर्क आता है वो टावर्स के जरिए आता है. ये सभी टावर एक दूसरे से तारों के जरिए कनेक्ट रहते हैं, लेकिन सैटेलाइट कम्यूनिकेशन में ऐसा नहीं होता है. इसमें हमें किसी तरह के तार या टावर्स की जरूरत नहीं होती है. ये सीधा सैटेलाइट से हमारे डिवाइसेज तक पहुंचते हैं. कैसे, समझते हैं.
सैटेलाइट के जरिए इंटरनेट सेवाओं के लिए पृथ्वी के लोअर ऑर्बिट में (पृथ्वी से करीब 400-500 किलोमीटर ऊपर) बहुत सारे सैटेलाइट्स को छोड़ा जाता है. इन सैटेलाइट्स के जरिए हम स्पेस से डायरेक्ट इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. इसके लिए कोई कंपनी जो सैलेटलाइट इंटरनेट सेवाएं देना चाहती है, वो अपने सैटेलाइट्स को ऑर्बिट में छोड़ती है. फिर अपने सब्सक्राइबर्स को दिए गए सैटेलाइट डिश और मॉडम से उसको कनेक्ट करती है. मॉडम से उन डिवाइसेज को कनेक्ट किया जाता है जिनमें इंटरनेट का इस्तेमाल किया जाना है, जैसे कंप्यूटर, मोबाइल या टीवी वगैरह.
सैटेलाइट के जरिए इंटरनेट सर्विसेज में एलॉन मस्क की कंपनी स्टारलिंक एक बड़ी प्लेयर है. Space.com की एक रिपोर्ट के मुताबिक एलन मस्क की कंपनी स्टारलिंक ने ऑर्बिट में करीब 6,426 सैटेलाइट छोड़ रखे हैं, जिसमें से 6,371 काम कर रहे हैं. स्पेसएक्स की इसकी संख्या को 42,000 तक पहुंचाना चाहती है.
अब सवाल उठता है कि अभी हम जो इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं, उसके रहते हुए सैटेलाइट स्पेक्ट्रम की जरूरत क्यों है. दरअसल, देश में ऐसे कई इलाके हैं जहां इंटरनेट नहीं पहुंच सकता है. कई दूरदराज, पहाड़ी और दूरू जगहों पर टावर लगाना, वायरिंग करना बहुत मुश्किल काम है. ऐसे में सैटेलाइट के जरिए वहां पर इंटरनेट पहुंचाया जाता है.
इसकी जरूरत हमें तब ज्यादा महसूस होती है, जब कोई प्राकृतिक आपदा आ जाती है और हमारा संचार सिस्टम काम करना बंद कर देता है. ऐसे में सैटेलाइट सर्विसेज का इस्तेमाल लोगों से संपर्क करने और राहत कार्य को पहुंचाने में मदद के लिए किया जाता है.
साथ ही, दूरदराज के इलाकों में स्कूल कॉलेज, ऑफिसेज में इंटरनेट की सुविधा मिल सकेगी, मुश्किल और बीहड़ इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं को पहुंचाया जा सकता है, जहां पर या तो अभी इंटरनेट नहीं है, अगर है भी तो स्पीड बहुत कम है.
झगड़ा सिर्फ इसके आवंटन के तरीके को लेकर है. अभी तक स्पेक्ट्रम का आवंटन टेलीकॉम कंपनियों को ऑक्शन के जरिए होता आया है. मतलब सरकार अलग अलग सर्कल के लिए स्पेक्ट्रम को बेचने के लिए रखती है, कंपनियां बोलियां लगाती हैं, जो जीतती है सरकार उसको स्पेक्ट्रम आवंटति करती है और कंपनी उस सर्कल में अपनी सेवाएं देती है. सैटेलाइट स्पेक्ट्रम को लेकर भी कंपनियां यही चाहती थीं.
मुकेश अंबानी इसके लिए काफी समय से सरकार से अपील करते आए कि स्पेक्ट्रम की नीलामी ऑक्शन के जरिए की जाए, जिसमें उनका साथ सुनील भारती मित्तल ने भी दिया, लेकिन एलॉन मस्क चाहते थे कि सैटेलाइट स्पेक्ट्रम का आवंटन ऑक्शन के जरिए न कराकर एडमिनिस्ट्रेटिव तरीके से किया जाए.
कुछ हफ्ते पहले तक सबकुछ बयानबाजी तक सीमित था, लेकिन इस मंगलवार को संचार मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के बयान के बाद जियो और एयरटेल जैसी कंपनियां बैकफुट पर आ गईं. सिंधिया ने ऐलान किया कि वो स्पेक्ट्रम का आवंटन एडमिनिस्ट्रेटिव तरीके से ही करेंगे. इसको मस्क की जीत और जियो के लिए हार के तौर पर देखा जाने लगा.
अब समझते हैं कि ऑक्शन और एडमिनिस्ट्रेटिव तरीका क्या है, आखिर क्यों मस्क और मुकेश अंबानी अलग अलग तरीकों पर अड़े हैं. देखिए जो ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा कि स्पेक्ट्रम का आवंटन एडमिनिस्ट्रेटिव तरीके से किया जाएगा, इसे लेकर TRAI पहले ही सितंबर में एक कंसल्टेशन पेपर जारी कर चुकी थी. जिसमें उसने सैटकॉम सेवाओं के लिए एडमिनिस्ट्रेटिव रूट से स्पेक्ट्रम की कीमत के बारे में इंडस्ट्री से जानकारी मांगी थी, यानी इस दिशा में काम पहले ही शुरू हो चुका था.
एडमिनिस्ट्रेटिव रूट के जरिए सरकार योग्य कंपनियों को स्पेक्ट्रम आवंटित करती है, यानी उन्हें सीधा ही स्पेक्ट्रम लाइसेंस दे देती है. इसके लिए सरकार एक एलिजिबिलिटी क्राइटेरिया तय करती है, जो कंपनी उसमें फिट पाई जाती है, उसे स्पेक्ट्रम लाइसेंस दे दिया जाता है. सरकार स्पेक्ट्रम देने के एवज में कंपनियों से एक तय फीस लेती है, न कि स्पेक्ट्रम की फुल वैल्यू.
जबकि ऑक्शन मॉडल में, कंपनियां सरकार की ओर से तय रिजर्व प्राइस के ऊपर स्पेक्ट्रम के लिए बोली लगाती हैं. सबसे ज्यादा बोली लगाने वाली कंपनी को स्पेक्ट्रम अलॉट कर दिया जाता है.
एडमिनिस्ट्रेटिव रूट को लेकर ये तर्क दिया जाता है कि सैटेलाइट स्पेक्ट्रम टेरेस्ट्रियल स्पेक्ट्रम से अलग है और एक शेयर्ड रिसोर्स यानी साझा संसाधन है. मतलब ये कि सैटेलाइट स्पेक्ट्रम में, समान फ्रीक्वेंसीज को कई सैटेलाइट नेटवर्क एक ही जगह पर दोबारा इस्तेमाल कर सकते हैं.
मतलब ये कि सैटेलाइट से आने वाले एक स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल अगर जियो करता है, तो उसका इस्तेमाल एयरटेल भी करेगा, वोडाफोन भी करेगा और स्टारलिंक भी करेगा.
सैटेलाइट से आने वाले स्पेक्ट्रम को टुकड़ों में नहीं बांटा जा सकता है, जबकि अभी हम जिस स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल करते हैं, वो अलग अलग टुकड़ों में बांटी जाती है.
ऐसे में ये स्पेक्ट्रम किसी एक का नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये शेयर्ड है. इसलिए इसका ऑक्शन नहीं किया जा सकता है. यही वजह है कि पूरी दुनिया में सैटेलाइट स्पेक्ट्रम का आवंटन एडमिनिस्ट्रेटिव तरीके से किया जाता है, सरकारें अपने हिसाब से इसके लिए कंपनियों से चार्ज वसूलती हैं.
यूनाइटेड नेशंस (UN) की एक एजेंसी, इंटरनेशनल टेलीकम्यूनिकेशंस यूनिट (ITU) इन फ्रीक्वेंसीज के आवंटन की देखरेख करती है, जिसका हिस्सा भारत भी है.