अमेरिका के लिए वक्त जिस तेजी से 1 जून की तरफ बढ़ रहा है उससे कहीं ज्यादा तेजी से अमेरिका के डिफॉल्ट होने का खतरा नजदीक आ रहा है. पूरी दुनिया में इस बात की घबराहट है कि अगर अमेरिका अपने कर्जों को डिफॉल्ट कर जाता है, तो क्या होगा. क्या इसका असर दुनिया के बाकी हिस्सों पर होगा.
24 ट्रिलियन डॉलर का अमेरिकी ट्रेजरी मार्केट अमेरिका के खर्चों को पूरा करने के लिए जिम्मेदार होता है और यही इसका प्राथमिक स्रोत भी है. साथ ही ये दुनिया का सबसे बड़ा डेट मार्केट भी है. अमेरिका इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था है, जिसका दखल दुनिया की हर बड़ी-छोटी अर्थव्यवस्थाओं में है, इसलिए अमेरिका अगर छींक भी देगा तो दुनिया को बुखार आ सकता है. फिलहाल तो अमेरिका के खुद के हालात बुखार जैसे हैं.
फिलहाल 1 ट्रिलियन से ज्यादा के ट्रेजरी डेट 31 मई से जून के अंत तक मैच्योर हो रहे हैं. इन डेट को अमेरिकी सरकार को चुकाना है, ताकि डिफॉल्ट को रोका जा सके. इसके अलावा 13.6 बिलियन डॉलर के इंटरेस्ट पेमेंट भी जाने हैं, जो 11 अलग अलग तारीखों में बंटे हैं. अगर इसके भुगतान के लिए कर्ज की सीमा नहीं बढ़ाई गई तो अमेरिका 11 बार डिफॉल्ट हो सकता है.
अमेरिका के ट्रेजरी बॉन्ड को निवेश के लिहाज से पूरी दुनिया में सबसे सुरक्षित माना जाता है. अमेरिका जब बॉन्ड जारी करता है तो दुनिया भर की कंपनियां, कई देश इस बॉन्ड को खरीदते है और चैन की सांस लेते हैं, लेकिन मुश्किलें कभी एक तरफ से नहीं आती.
अभी अमेरिका बैंकिंग संकट और महंगाई से जूझ ही रहा है ऊपर से डेट डिफॉल्ट का संकट मंडराने लगा. क्योंकि अगर अमेरिका डिफॉल्ट करता है तो अपने बॉन्डहोल्डर्स को ब्याज नहीं चुका पाएगा, ऐसे में अमेरिका के इस प्रतिष्ठित ट्रेजरी की साख पर बट्टा लगेगा सो अलग.
इसका असर ये होगा कि निवेशकों के बीच एक घबराहट फैल जाएगी. जिन लोगों या कंपनियों के पास ये ट्रेजरी सिक्योरिटीज होंगी, डिफॉल्ट के खतरे को देखते हुए उनके बीच इन ट्रेजरीज को बेचने की होड़ लग जाएगी. जब बॉन्डहोल्डर्स को अमेरिका भुगतान नहीं कर पाएगा तो रेटिंग एजेंसियां अमेरिकी डेट की रेटिंग को घटा देंगी, जिससे अमेरिका को आगे कर्ज मिलने में मुश्किल होगी और मिला भी तो काफी महंगा होगा.
अमेरिका को जब कर्ज महंगा मिलेगा तो इसका असर अमेरिका के कारोबारियों, बिजनेस, आम परिवारों पर पड़ेगा क्योंकि उनके लिए भी कर्ज महंगा हो जाएगा. कर्ज महंगा होने से कंपनियां लोन कम लेंगी, काम-धंधा चौपट होगा, बेरोजगारी बढ़ेगी और अमेरिका मंदी की चपेट में चला जाएगा.
अमेरिका के कारोबारी संबंध दुनिया के हर हिस्से से है. अगर अमेरिका मंदी की चपेट में आता है तो उसका असर ऐसे देशों पर भी होगा जो अपने बिजनेस के लिए अमेरिका पर निर्भर हैं, ऐसे इमर्जिंग मार्केट्स की संख्या काफी ज्यादा है. मंदी की वजह से अमेरिका की मैन्युफैक्चरिंग से लेकर सर्विस सेक्टर तक सभी पर असर होगा.
सामान बनने की रफ्तार कम हो जाएगी, सर्विसेज सुस्त हो जाएंगी. इसलिए जो उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं अपनी कमाई के लिए अमेरिका के एक्सपोर्ट पर निर्भर हैं, डिमांड कम होने से उनकी आर्थिक स्थिति भी बिगड़ेगी. डॉलर की वैल्यू गिरने से अमेरिकी कंपनियों के लिए विदेशी सामानों को खरीदना महंगा हो जाएगा, इसलिए ऐसे देशों के साथ अमेरिका का व्यापार भी घटने लगेगा.
अब जब डॉलर की बात चली है तो इसके असर को समझ लीजिए. पूरी दुनिया के ट्रेड पर डॉलर का राज है, इसको ऐसे समझिए कि दुनिया में जो भी ट्रेडिंग होती है उसका करीब 80% का भुगतान डॉलर में होता है. जो कंपनियां या बिजनेस या सर्विसेज अभी तक डॉलर में एक रकम मिलने का अनुमान लगाकर बैठीं हैं, अगर डॉलर की वैल्यू में गिरावट आती है तो इन कंपनियों, बिजनेस को मिलने वाली रकम भी अपने आप कम हो जाएगी, यानी कंपनियों को घाटा उठाना पड़ेगा.
जब दुनिया में कहीं भी संकट आता है तो निवेशकों के लिए सबसे सुरक्षित निवेश अमेरिका को माना जाता है. जब कभी अमेरिका पर संकट आता है तो निवेशक यहां से पैसा निकालकर कहीं किसी दूसरे देश में लगाते हैं. अगर अमेरिका डिफॉल्ट करता है, तो इसका फायदा इमर्जिंग मार्केट्स को भी हो सकता है. निवेशक अमेरिका से अपना निवेश निकालकर दूसरे बाजारों में लगा सकते हैं.
ब्लूमबर्ग में छपी रिपोर्ट के मुताबिक - निवेशक अब इमर्जिंग मार्केट्स में अपने निवेश को बढ़ाने की तैयारी कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें अमेरिका में मंदी दिख रही है. ब्लूमबर्ग के सर्वे में शामिल मनी मैनेजर्स, एनालिस्ट और ट्रेडर्स में से करीब 61% ने कहा कि वे अगले 12 महीनों में डेवलपिंग असेट्स में अपना एक्सपोजर बढ़ा सकते हैं. इकोनॉमिस्ट्स का कहना है कि 30 साल पहले की तुलना में आज विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था कहीं ज्यादा लचीली है.
दुनिया की सबसे शक्तिशाली अर्थव्यवस्था अमेरिका ऐसे हालात में पहली बार नहीं पहुंचा है, 1917 के बाद से करीब 100 बार और 1960 के बाद से अबतक करीब 78 बार सीलिंग को बढ़ाया जा चुका है. इस बार का किस्सा अलग है तो सिर्फ राजनीतिक गतिरोध की वजह से. वित्तीय संकट कम, राजनीतिक संकट ज्यादा है.