हर निवेशक को बुल रन (Bull Run) पसंद है. किसी एसेट की कीमतें तेजी से बढ़ने पर उनकी दौलत बढ़ती है. लेकिन यही समय है कि जब उनके पोर्टफोलियो (Investment Portfolio) में भी जोखिम बढ़ जाता है. उन्हें अपने पोर्टफोलियो में जोखिम को काबू में लाना होता है. और इसका सबसे अच्छा तरीका एसेट एलोकेशन (Asset Allocation) रूट को फॉलो करना होता है. इसमें अनुशासन रखना जरूरी होता है और इसके साथ ही पोर्टफोलियो में मौजूद फंड्स का सही मैनेजमेंट भी करना होता है.
बुल रन में एक निवेश पर सबसे बड़ा असर ये होता है कि उसके एसेट्स की वैल्यू तेजी से बढ़ती है. इनकी वैल्यू में बढ़ोतरी तेज हो सकती है, जब इक्विटीज जैसे एरिया में बुल रन होती है. ये निवेशक के लिए अच्छी खबर है क्योंकि इससे उनके पोर्टफोलियो की वैल्यू बढ़ेगी और उनके लक्ष्यों को हासिल करने में मदद मिलेगी. इस तरह की कीमतों में बढ़ोतरी निवेशक के लिए मुश्किलों की शुरुआत भी है क्योंकि ये भी अहम है कि एसेट को कितने लंबे समय के लिए होल्ड किया जाता है.
निवेश का शुरुआती लक्ष्य बेचकर मुनाफा कमाना हो सकता है. लेकिन जब कीमतें बढ़ती हैं तो मन में लालच आ सकता है और इससे बिक्री का फैसला टाल सकता है. आखिर में जोखिम बढ़ता है क्योंकि पोर्टफोलियो एक दिशा में फंस जाता है, ऐसे में निवेशक को वो नहीं मिलता जो वो चाहता है.
इस स्थिति को संभालने का सबसे अच्छा तरीका है कि सही एसेट एलोकेशन का स्ट्रक्चर हो. साधारण शब्दों में एसेट एलोकेशन में ये फैसला लेना होता है कि पोर्टफोलियो में मौजूद अलग-अलग एसेट क्लास में कितनी राशि का आवंटन किया जाएगा. हर किसी व्यक्ति के पास एक अलग स्थिति होती है और उसे अपनी जरूरत के हिसाब से एसेट एलोकेशन करना होता है.
एक एसेट एलोकेशन से ये सुनिश्चित होता है कि व्यक्ति अपनी खुद की जरूरतों को विचार में ले. कुछ समय बाद जब अलग-अलग निवेश की वैल्यू में बदलाव आएगा तो एसेट एलोकेशन में भी बदलाव होगा. इस स्टेज में व्यक्ति को ये सुनिश्चित करना होता है कि री-बैलेंसिंग हो और एसेट एलोकेशन वहां वापस आ जाए, जहां उसे होना चाहिए.
उदाहरण के लिए अगर इक्विटी पोर्टफोलियो को पोर्टफोलियो में 60% पर बनाकर रखना है. और तेजी से ये 65% तक चली जाए. निवेशक को पता है कि उन्हें 5% इक्विटी एक्सपोजर को बाहर लेना होगा और उसे किसी दूसरी जगह आवंटित करना होगा. इससे ये सुनिश्चित होगा कि ज्यादा वैल्यू पर कुछ फायदा हो, जिसे अच्छा प्रदर्शन करने वाली एसेट क्लास से लिया जाए और किसी अन्य जगह आवंटित किया जाए जिससे कुल बैलेंस बना रहे.
री-बैलेंसिंग में एक अहम चीज अवधि होती है जिसमें ये की जाती है. ये बहुत कम समय में नहीं किया जा सकता है क्योंकि उससे वो अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकेगा. इसके अलावा लंबे समय के लिए इंतजार करने से वो अवसर हाथ से निकल सकता है जो आया है. सबसे बेहतर ये है कि री-बैलेंसिंग छह महीने के अंदर की जानी चाहिए. इससे ये सुनिश्चित होगा कि निगरानी हो रही है. और जरूरत पड़ने पर बदलाव भी किए जा रहे हैं. एक बार ये हो जाता है को व्यक्ति वापस जा सकता है और अलग-अलग एसेट क्लास को अपना काम करने दे सकता है.
अर्णव पंड्या
(लेखक Moneyeduschool के फाउंडर हैं)