अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव 2024 में डॉनल्ड ट्रंप ऐतिहासिक वापसी कर चुके हैं. वे अपने दूसरे कार्यकाल के लिए तैयार हैं. 131 साल बाद ऐसा हुआ है कि कोई राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद फिर से अगला चुनाव जीता है. इससे पहले डेमोक्रेटिक पार्टी के ग्रोवर क्लीवलैंड 1885 से 1889 तक राष्ट्रपति रहे थे. इसके बाद वे 1893 में दोबारा राष्ट्रपति चुने गए थे.
महाशक्ति अमेरिका का बड़ा वैश्विक असर है. ट्रंप तमाम नीतियों और मुद्दों पर बाइडेन प्रशासन से अलग रुख रखते हैं, ऐसे में उनके सत्ता में आने का असर पूरी दुनिया पर होगा. रूस से इजरायल, चीन से भारत और यूरोप तक कई मुद्दों पर अब अमेरिकी समीकरणों में बदलाव आ सकता है. समझते हैं दुनिया पर ट्रंप की वापसी का क्या असर पड़ सकता है.
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की डॉनल्ड ट्रंप कई बार सार्वजनिक तारीफ कर चुके हैं. लेकिन यहां मामला व्यक्तिगत संबंधों और तारीफ से कहीं आगे नीतियों से जुड़ा है. रूस और अमेरिका के संबंध यूक्रेन युद्ध के चलते फिलहाल सबसे बुरे दौर में हैं. डॉनल्ड ट्रंप ने यूक्रेन जंग को राष्ट्रपति बनने की स्थिति में 'एक दिन में खत्म करने' का दावा किया था. हालांकि उन्होंने ये नहीं बताया कि यूक्रेन में जंग कैसे खत्म करेंगे. ट्रंप के डेप्यूटी जेडी वांस भी यूक्रेन को अतिरिक्त पैसा दिए जाने के मुखर विरोधी हैं. दरअसल यहां ट्रंप-वांस युद्ध खत्म करने से ज्यादा अमेरिका को वैश्विक विवादों से निकालना चाहते हैं, ताकि इस पर होने वाले खर्च को बचाया जा सके.
रूस के पूर्व प्रधानमंत्री दिमित्री मेदवदेव ने ट्रंप के चुनाव को यूक्रेन के लिए बुरी खबर बताया है, जो हथियारों के लिए बहुत हद तक अमेरिका पर निर्भर है. लेकिन मामला इतना सीधा नहीं है. तमाम लफ्फाजी के बावजूद भी ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में क्रीमिया पर कब्जे के बाद रूस पर लगाए पश्चिमी प्रतिबंधों को खत्म नहीं किया था. आज अमेरिका में आम मत भी रूस के खिलाफ है. शायद इन्हीं वजहों से पुतिन फिलहाल ट्रंप की जीत पर चुप्पी साधे हुए हैं.
रूस सरकार के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने भी इसी लाइन पर अपनी बात रखी और कहा, 'ट्रंप ने यूक्रेन में जंग खत्म करने की मंशा से जुड़ी कुछ अहम बातें कही हैं, लेकिन सिर्फ वक्त बताएगा कि ये बातें कुछ ठोस कार्रवाई में बदलती हैं या नहीं.'
ट्रंप के सत्ता में आने से यूरोप और अमेरिका के संबंध समीकरण में काफी बदलाव आ सकता है. दरअसल ट्रंप पहले ही यूरोप से आने वाले हर एक माल पर टैरिफ लगाने की बात कह चुके हैं. अगर ऐसा होता है तो EU भी बदले में कुछ कार्रवाई कर सकता है. दरअसल यूरोपियन यूनियन बाइडेन कार्यकाल में स्टील और एल्यूमीनियम टैरिफ, इलेक्ट्रिक कारों पर ग्रीन सब्सिडी जैसे मुद्दों पर सहमति बनाने में नाकामयाब रहा है. ट्रंप के कार्यकाल में ये और बदतर हो सकते हैं. एक और मामला एनर्जी से जुड़ा है, जिसके दो तरफा असर हो सकते हैं.
अमेरिकी पब्लिकेशन पॉलिटिको के मुताबिक 'ऑयल और गैस उत्पादन पर ज्यादा जोर होने के चलते ट्रंप बाइडेन प्रशासन के नए लिक्विफाइड नेचुरल गैस प्रोजेक्ट्स पर लगे प्रतिबंध को खत्म करना चाहते हैं. साथ ही ट्रंप कैंप के कई लोग इंफ्लेशन रिडक्शन एक्ट (IRA) को खत्म करना चाहते हैं, जिसके जरिए क्लीन टेक्नोलॉजी, हाइड्रोजन और नवीकरणीय ऊर्जा पर आधा ट्रिलियन डॉलर्स आवंटित किया गया है. इस प्रोग्राम से इन सेक्टर्स में अच्छी पकड़ के चलते यूरोप से कई बिजनेस अमेरिका पहुंचे. अगर ये प्रोग्राम खत्म होता है, तो यूरोपियन यूनियन को लाभ होगा.' लेकिन इस बीच ग्लोबल क्लाइमेट एक्शन के भी धीमे होने की आशंका है, जिसका असर यूरोप पर भी होगा.
रिपोर्ट में यूरोप और अमेरिका के संबंधों में एक और अहम पहलू पर ध्यान दिलाया गया है. दरअसल बैंक कैपिटल रूल्स, जिन्हें बेसल-III नियमों के नाम से जाना जाता है, उनके लिए ट्रंप का चुना जाना बुरी खबर साबित हो सकता है. अमेरिका पहले ही बैंकिंग इंडस्ट्री के दबाव के चलते इन नियमों को लागू करने की योजनाओं को आगे बढ़ा चुका है. लेकिन अब इन नियमों पर पूरी तरह रद्द होने का खतरा बढ़ गया है.
वहीं सुरक्षा क्षेत्र में भी अब गंभीर असर पड़ने की संभावना है. पिछले कार्यकाल में ही ट्रंप के दबाव के चलते कई नाटो देशों ने अपने रक्षा बजट को बढ़ाया था. ऐसे में इन देशों के रक्षा बजट पर अब अतिरिक्त दबाव और बढ़ सकता है. मतलब अब इन देशों को अपनी सुरक्षा के लिए अतिरिक्त पैसा खर्च करना होगा.
डॉनल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल में अमेरिका और चीन के बीच 2018 में ट्रेड वॉर हुई थी, जिसमें दोनों देशों ने एक-दूसरे के प्रोडक्ट्स पर भारी टैरिफ लगाए थे. ट्रंप हाल में भी भारी टैरिफ की बात करते हुए चीनी उत्पादों पर 60% तक टैरिफ लगाने के साथ-साथ चीन के मोस्ट फेवर्ड नेशन के दर्जे को भी खत्म करने की बात कह चुके हैं.
वैसे तो चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की व्यक्तिगत स्तर पर ट्रंप तारीफ करते रहे हैं. लेकिन वे ट्रंप ही थे, जिन्होंने कोरोना वायरस को 'चाइना वायरस' का नाम दिया था. मतलब ट्रंप पहले कार्यकाल में अमेरिका ने खुलकर चीन का विरोध किया था. ताइवान के मुद्दे पर भी दोनों देशों में काफी तनातनी हुई थी.
एक्सपर्ट्स का मानना है कि आगे सुपरपावर की दौड़ और तेज होगी.
ट्रंप की जीत चीन के लिए चिंता बढ़ाती है, चुनाव का ये नतीजा भले ही चीन की पहली पसंद ना हो, लेकिन ये पूरी तरह अप्रत्याशित भी नहीं है. चीन को ट्रेड वॉर के दोबारा शुरू होने का डर है, खासतौर पर ऐसे वक्त में जब चीन कई तरह की आंतरिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है.तोंग झाओ, सीनियर फैलो, कार्नेगी एनडॉवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस
बता दें अमेरिका और चीन के बीच 2023 में 575 बिलियन डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार हुआ. इसमें अमेरिका ने चीन को करीब 148 बिलियन डॉलर का माल निर्यात किया. जबकि चीन से करीब 427 बिलियन डॉलर का माल आयात किया गया. इस तरह अमेरिका का चीन के साथ व्यापार घाटा करीब 280 बिलियन डॉलर रहा.
पिछले कार्यकाल में ट्रंप इजरायल का जबरदस्त समर्थन करते रहे हैं, जो अमेरिका की पारंपरिक नीति भी रही है. इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ ट्रंप की अच्छी बनती रही है. 2019 में ही गोलन हाइट्स पर इजरायल के अधिकार को मान्यता दी थी. लेकिन इस बार स्थितियां तब कुछ अलग हो सकती हैं, जब अमेरिका बाहरी विवादों से खुद को दूर करने की कोशिश कर रहा है.
द गार्डियन में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक ट्रंप अपनी कैंपेनिंग के दौरान ही नेतन्याहू को खत लिखकर कह चुके हैं कि उनके कार्यकाल शुरू होने तक गाजा में कैंपेन को खत्म करने के लिए कह चुके हैं.
हालांकि ट्रंप चाहेंगे कि जो भी नतीजा हो, वो ज्यादातर इजरायल के पक्ष में हो. लेबनान में भी ट्रंप जल्दी इजरायली अभियान खत्म करने के पक्ष में हैं. लेकिन नई नीति के चलते अब ये मुश्किल होगा कि ईरान में परमाणु ठिकानों समेत किसी बड़ी कार्रवाई में अमेरिका इजरायल को प्रोत्साहन दे. कुलमिलाकर इजरायल पर जल्दी जंग खत्म करने का दबाव बढ़ सकता है.
भारत के साथ बीते दो दशकों में अमेरिका के संबंध लगातार परवान चढ़े हैं. इंडो-पैसिफिक में चीन को संतुलित करने की नीति के तहत भारत में अमेरिका एक अहम सहयोगी की संभावना देखता है. रक्षा क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच सहयोग काफी बढ़ा है. भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जबकि अमेरिका सबसे पुराना. ऐसे में दोनों देश एक-दूसरे के स्वाभाविक सहयोगी भी हैं. तमाम वैश्विक मंचों पर ये दिखता भी है. ट्रंप के बीते कार्यकाल में भी भारत और अमेरिका के संबंधों में काफी सुधार हुआ था.
लेकिन इस बार दोनों देशों के बीच टैरिफ को लेकर तनातनी हो सकती है. ट्रंप सार्वजनिक तौर पर भारत को अमेरिकी प्रोडक्ट्स पर ज्यादा टैरिफ लगाने के लिए जिम्मेदार बताते रहे हैं. वे भारत को 'टैरिफ किंग', 'टैरिफ एब्यूजर' तक बताते रहे हैं. बीते कार्यकाल में भी एल्यूमीनियम और मोटरसाइकिल टैरिफ को लेकर दोंनों देश आमने सामने आ चुके हैं.
ट्रंप प्रशासन ने इंपोर्ट स्टील पर 25% और एल्यूमीनियम पर 10% का टैरिफ लगा दिया था. इससे एक साल के अंदर भारत का स्टील एक्सपोर्ट 46% तक गिर गया था, स्टील सेक्टर को करीब 240 मिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा था. उन्होंने 2019 में भारत को जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रेफरेसेंज (GSP) से भी हटा दिया था.
इस बार कैंपेन के दौरान ट्रंप ने भारत पर पारस्परिक टैक्स लगाने की बात कही थी. 'अमेरिका फर्स्ट' की नीति से साफ है कि ट्रंप अमेरिका में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देना चाहते हैं, लेकिन ये भारत के लिहाज से बुरी खबर साबित हो सकती है.
बता दें अमेरिका, भारत का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है. दोनों देशों के बीच व्यापार FY24 में 190 बिलियन डॉलर के पार पहुंच गया. इसमें करीब 120 बिलियन डॉलर का गुड्स ट्रेड और 70 बिलियन डॉलर का सर्विसेज ट्रेड शामिल है.