साल था- 1999. महीना अप्रैल का. और देश में सरकार थी NDA की. दूसरी बार प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी को महज 13 महीने हुए थे. इस गठबंधन सरकार के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया. लोकसभा में वोटिंग कराई गई और महज 1 वोट से वाजपेयी की सरकार गिर गई.
उस वक्त लोकसभा स्पीकर थे- तेलगू देशम पार्टी (TDP) के नेता GMC बालयोगी. इस खेल में वैसे तो 'विलेन' साबित हुए थे- वाजपेयी के विरोध में वोट डालने वाले गिरिधर गमांग. लेकिन GMC बालयोगी की भूमिका भी कम नहीं थी, जिन्होंने गमांग को वोट करने का अधिकार दिया था.
अब एक बार फिर BJP को गठबंधन सरकार बनाने की नौबत आन पड़ी है और 16 सीटों के समर्थन के बदले TDP के मुखिया चंद्रबाबू नायडू स्पीकर की पोस्ट चाहते हैं. उन्होंने 'मोदी 3.0' कैबिनेट में 5 मंत्री पद के अलावा लोकसभा स्पीकर की कुर्सी भी मांगी है. दूसरी ओर नीतीश कुमार ने भी बिहार के लिए स्पेशल स्टेटस और 3 मंत्रालय की मांग की है.
बाकी शर्तों पर बात करना एक अलग मुद्दा है और लोकसभा स्पीकर की कुर्सी एक अलग महत्वपूर्ण विषय है. शपथग्रहण में अभी समय है.
इस बीच देखना दिलचस्प होगा कि 1999 में 'गच्चा' खा चुकी BJP इस मुद्दे पर क्या फैसला लेती है. साथ ही ये जानना भी दिलचस्प है कि लोकसभा स्पीकर की पावर क्या होती है और किन परिस्थितियों में इस कुर्सी की भूमिका बढ़ जाती है.
1998 के लोकसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था, लेकिन 182 सीटों के साथ BJP सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, सो उसे ही सरकार बनाने का आमंत्रण मिला और वाजपेयी के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनी. सरकार को 13 महीने हुए थे. AIADMK तभी NDA का हिस्सा थी और पार्टी की मुखिया जयललिता चाहती थीं कि सरकार उनके खिलाफ सारे मुकदमे वापस ले.
अटल बिहारी पर लेखक शक्ति सिन्हा की किताब 'वाजपेयी द ईयर्स दैट चेंज्ड इंडिया' के अनुसार, जयललिता के खिलाफ इनकम टैक्स के केसेस भी चल रहे थे. वो तमिलनाडु में करुणानिधि सरकार की बर्खास्तगी और अपने हितैषी सुब्रमण्यम स्वामी के लिए मंत्री पद भी चाहती थीं.
अपने राजधर्म पर 'अटल' रहने वाले 'वाजपेयी' को उनकी मांगें मुनासिब न लगी. वो पहले ही यथासंभव मदद कर चुके थे. 6 अप्रैल को AIADMK के मंत्रियों ने वाजपेयी को अपने इस्तीफे भेज दिए. 8 अप्रैल को ये इस्तीफे तत्कालीन राष्ट्रपति KR नारायणन तक पहुंच चुके थे. 11 अप्रैल को जयललिता राष्ट्रपति से मिलीं और NDA सरकार से अपना समर्थन वापस लेने का पत्र सौंप दिया.
उन दिनों संसद का सत्र चल ही रहा था. राष्ट्रपति नारायणन ने वाजपेयी से विश्वास मत लाने के लिए कहा. फ्लोर टेस्ट के लिए लोकसभा में वोटिंग के दौरान जब इलेक्ट्रॉनिक स्कोरबोर्ड पर जब नजर गई तो पूरा सदन अचंभित हो गया. वाजपेयी सरकार के पक्ष में 269 वोट पड़े थे और विरोध में 270 वोट. महज 1 वोट के अंतर से सरकार गिर गई.
वाजपेयी के विरोध में वोट करने वाले गिरधर गमांग की खूब आलोचना होती रही है. दरअसल, 1998 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर जीत दर्ज कर गिरधर गमांग सांसद बने थे. लेकिन जनवरी 1999 में कांग्रेस, जब ओडिशा विधानसभा चुनाव जीती तो वे मुख्यमंत्री बनाए गए. कायदे से तो उन्हें लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे देना चाहिए था, लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं था.
लोकसभा के सेक्रेट्री जनरल एस गोपालन की सलाह पर लोकसभा स्पीकर GMC बालयोगी ने वोट देने के मसले पर फैसला गोमांग के विवेक पर छोड़ दिया. बालयोगी चाहते तो उन्हें वोटिंग का अधिकार नहीं दे सकते थे!
खैर गोमांग ने अपनी पार्टी के साथ चलते हुए वाजपेयी के विरोध में वोट कर दिया. इस तरह पहले कार्यकाल में महज 13 दिन प्रधानमंत्री रहे वाजपेयी की सरकार दूसरे कार्यकाल में 13 महीनों में गिर गई.
उस वक्त फारूक अबदुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस भी NDA की सहयोगी थी, लेकिन उसके एक सांसद सैफुद्दीन सोज ने अटल सरकार के खिलाफ वोट डाल दिया था. इसे भी वाजपेयी सरकार के गिरने का बड़ा कारण माना गया.
लोकसभा स्पीकर, सदन के मुख्य पीठासीन अधिकारी होते हैं. उनके प्रमुख कार्यों और जवाबदेहियों में संविधान के अनुसार, सदन का संचालन करना, संसदीय मामलों में निर्णय करना, सांसदों की बैठक का एजेंडा तय करना, अनुशासन तोड़ने पर सदस्यों को दंडित करना (निलंबन) वगैरह आते हैं. लेकिन कई मौकों उसकी भूमिका अहम हो जाती है.
सदन में स्पीकर वैसे तो निष्पक्ष होते हैं, लेकिन सरकार के हितों की रक्षा करना उनकी जिम्मेदारी होती है. सदन में वोटिंग की स्थिति में अमूमन स्पीकर वोट नहीं डालते, लेकिन किसी बिल पर पक्ष और विरोध में बराबर वोट होने पर स्पीकर ही निर्णायक वोट डालते हैं.
गठबंधन सरकार में उनका रोल अहम होता है, क्योंकि पार्टियों के समर्थन वापसी की संभावना बनी रहती है.
अगर गठबंधन में शामिल कोई पार्टी सरकार से समर्थन वापस लेती है तो स्पीकर से सरकार का पक्ष लेने की उम्मीद की जाती है.
1999 में स्पीकर ने वाजपेयी सरकार का पक्ष नहीं लिया, जबकि 2008 में UPA सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया तो तत्कालीन स्पीकर सोमनाथ चटर्जी अपनी पार्टी (CPI) की मुखालफत कर सरकार के साथ बने रहे.
दलबदल के आधार पर किसी सांसद को अयोग्य घोषित कर सकते हैं. दलबदल कानून में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भी सीमित हो जाती है. हाल में हमने महाराष्ट्र में शिवसेना की अगुवाई वाली महा विकास अघाड़ी सरकार के मामले में कोर्ट की भूमिका भी देखी और सदन के स्पीकर की भी.
गठबंधन सरकार में सांसदों के टूटने का खतरा बना रहता है, ऐसे में दलबदलुओं के लिए स्पीकर की भूमिका ज्यादा अहम रहती है. फैसला उनके विवेक पर निर्भर करता है. वे चाहें तो सांसद के तौर पर उनकी मान्यता जारी रख सकते हैं, वे चाहें तो उन्हें अयोग्य घोषित कर सकते हैं.
इसलिए गठबंधन की सरकार में सत्ता जाने के खतरों से बचने के लिए ये जरूरी माना जाता है कि स्पीकर सबसे बड़ी पार्टी का हो, जो हमेशा सरकार के हितों की रक्षा करे.