IPO और NFO सुनने और बोलने में भले ही काफी मिलते-जुलते लगते हों, लेकिन दरअसल इनमें काफी अंतर होता है. NFO का मतलब है न्यू फंड ऑफर, जिसके जरिए म्यूचुअल फंड चलाने वाली एसेट मैनेजमेंट कंपनियां (AMC) निवेशकों को अपनी किसी नई स्कीम में पैसे लगाने के लिए आमंत्रित करती हैं.
जबकि IPO यानी इनीशियल पब्लिक ऑफर के जरिए पहले से कारोबार कर रही कंपनियां आम लोगों और वित्तीय संस्थाओं को अपने बिजनेस में हिस्सेदारी खरीदने का मौका देती हैं, जिसके बाद उनके शेयर BSE और NSE जैसे स्टॉक्स एक्सचेंज में लिस्ट होते हैं. लिस्टिंग के बाद शेयरों की कीमतें उनकी डिमांड और कंपनी के कारोबार में आने-वाले उतार-चढ़ावों के हिसाब से ऊपर-नीचे होती रहती हैं.
क्यों लाया जाता है IPO, कैसे मिलता है रिटर्न?
कंपनियों के IPO लाने के पीछे कई वजहें हो सकती हैं. मिसाल के तौर पर :
कंपनी के बिजनेस का विस्तार करने या ऑपरेशंस के लिए पूंजी जुटाना.
कंपनी पर बकाया कर्ज को पूरी तरह चुकाना या उसमें कमी करना.
कंपनी के प्रोमोटर्स की होल्डिंग को कम करना यानी उनकी हिस्सेदारी घटाने के लिए इक्विटी बेचना.
कंपनियां अपने IPO को सफल बनाने के लिए कई बार आकर्षक कीमतों पर अपनी हिस्सेदारी बेचती हैं, जिसके कारण निवेशकों को लिस्टिंग गेन होने की उम्मीद रहती है.
निवेशकों को शेयरों की कीमतों में बढ़ोतरी के साथ ही साथ डिविडेंड के जरिए भी कमाई होती है.
क्यों लाया जाता है NFO, कैसे मिलता है रिटर्न
एक एसेट मैनेजमेंट कंपनी (AMC) जब कोई नई म्यूचुअल फंड स्कीम लाती है, तो उसके लिए न्यू फंड ऑफर (NFO) पेश किया जाता है.
इस ऑफर के जरिए जुटाई गई पूंजी को एसेट मैनेजमेंट कंपनी इक्विटी मार्केट, बॉन्ड या किसी और एसेट में इनवेस्ट करती है.
इस निवेश पर मिलने वाले रिटर्न के जरिए ही कंपनी मुनाफा कमाने की कोशिश करती है, जिसका लाभ निवेशकों को उनकी यूनिट्स की कीमतों में बढ़ोतरी के रूप में मिलता है. इस मुनाफे का कुछ हिस्सा AMC खर्च और फंड्स मैनेजर्स की फीस के तौर पर निकल जाता है, जिसे एक्सपेंस रेशियो कहते हैं.
इन यूनिट्स की नेट एसेट वैल्यू (NAV) फंड के पोर्टफोलियो में शामिल एसेट्स की कीमतों में उतार-चढ़ाव के आधार पर ऊपर-नीचे होती रहती है.
हर ट्रेडिंग डे के अंत में फंड यूनिट की वैल्यू (NAV) निकाली जाती है, जो NFO के बाद निवेश करने वाले इनवेस्टर्स के लिए उपलब्ध होती है.
NFO का पिछला रिकॉर्ड नहीं होता
न्यू फंड ऑफर से जुटाए गए पैसे लगाने का मतलब उन एसेट्स में निवेश करना है, जो उस फंड के पोर्टफोलियो में शामिल हैं. चूंकि न्यू फंड ऑफर के जरिए लॉन्च स्कीम का कोई पिछला परफॉर्मेंस रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं होता, इसलिए ये अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि भविष्य में उसका प्रदर्शन कैसा होगा.
इस लिहाज से देखें तो अगर उन्हीं एसेट्स में निवेश करने वाला कोई और फंड बाजार में पहले से मौजूद है, जो पिछले कई वर्षों से लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रहा है, तो उसे चुनना नए फंड को चुनने से बेहतर माना जाता है.
NFO लाने वाली AMC पर ध्यान दें
NFO के जरिए लॉन्च की जा रही स्कीम का पिछला रिकॉर्ड नहीं होने के बावजूद अगर आप उसकी कंसेप्ट और इन्वेस्टमेंट स्ट्रेटेजी से काफी प्रभावित हैं और उसमें आपको बेहतर रिटर्न की गुंजाइश नजर आ रही है, तो निवेश पर विचार कर सकते हैं. लेकिन ऐसा करते समय आपको NFO पेश करने वाली AMC के पिछले रिकॉर्ड और उसके लाए दूसरे फंड्स के प्रदर्शन पर भी गौर करना चाहिए. उसका भरोसेमंद और सफल होना जरूरी है. हालांकि पिछले फंड की कामयाबी, नई स्कीम के सफल होने की गारंटी तो नहीं दे सकती है, लेकिन इससे सफलता की गुंजाइश बढ़ जरूर जाती है.
फंड मैनेजर का पिछला प्रदर्शन देखें
अगर आप किसी एक्टिव फंड के NFO में निवेश करने की सोच रहे हैं तो उसके फंड मैनेजर के पिछले प्रदर्शन के बारे में जरूर पता कर लें. किसी भी एक्टिव फंड की सफलता में उसके फंड मैनेजर का काफी हाथ होता है. एक्टिव फंड्स का मतलब उन स्कीम से है, जिनमें निवेश का फैसला काफी हद तक फंड मैनेजर की मर्जी पर निर्भर होता है. जबकि इंडेक्स फंड्स को पैसिव फंड कहते हैं, जिनमें पोर्टफोलियो में शामिल शेयरों के नाम और उनमें निवेश का अनुपात उस इंडेक्स के आधार पर तय होता है, जिससे वो फंड जुड़ा होता है.
कंफ्यूज हैं तो रुक जाएं
अगर आप किसी NFO की थीम से काफी प्रभावित हैं, लेकिन उसके परफॉरमेंस को लेकर असमंजस में हैं, तो हड़बड़ी में निवेश का फैसला न करें. भारत में ज्यादातर म्यूचुअल फंड्स ओपन एंडेड होते हैं. लिहाजा आप उनमें NFO का सब्सक्रिप्शन बंद होने के बाद भी निवेश कर सकते हैं. तब आप उसके परफॉर्मेंस को बेहतर ढंग से देख और समझ पाएंगे. अगर कुछ समय इंतजार करने के बाद भी आपको उस फंड की थीम और इनवेस्टमेंट स्ट्रैटेजी बेहतर लग रही है, तो आप उसमें निवेश का फैसला कर सकते हैं.