महिलाओं को पुरुषों से कम सैलरी देने का ट्रेंड कब खत्म होगा?

BCCI पुरुषों और महिलाओं को एक समान मैच फीस देगा, इस फैसले से महिलाओं के साथ सैलरी को लेकर भेदभाव पर एक बार फिर बहस छिड़ गई है.

Source: Envato

हाल ही में BCCI के एक फैसले ने जैसे ठहरे हुए पानी में कंकड़ मार दिया. लहर उठी, तो फिर से सवाल उठने लगे कि एक ही तरह के काम के लिए महिलाओं की सैलरी पुरुषों से कम क्यों? हर जगह महिलाओं के काम को आंख मूंदकर कमतर क्यों मान लिया गया? इस पर भी विचार करने की जरूरत है कि क्यों इस तरह का भेदभाव खत्म होना ही चाहिए.

काम करने में कौन आगे?

कोई भी इंसान बचपन से ही इस बात को अच्छी तरह महसूस कर सकता है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा काम करती आई हैं. ये और बात है कि महिलाओं के कामों की लिस्ट में कई एकदम घरेलू होते हैं. जाहिर है, वैसे कामों के बदले में उन्हें कोई मेहनताना नहीं मिलता. यह बात नीचे दिए गए सर्वे में भी देखी जा सकती है.


राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण (NSS) की 2019 की रिपोर्ट गौर करने लायक है. रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाएं हर दिन औसतन 299 मिनट उन घरेलू कामकाज में खपा देती हैं, जिनके लिए उन्हें किसी तरह का भुगतान नहीं किया जाता. पुरुष भी इस तरह के घरेलू काम करते हैं, लेकिन वे इस पर औसतन 97 मिनट ही खर्च करते हैं.

फर्क साफ है
सर्वे के अनुसार, 15-59 आयु-वर्ग की केवल 22% महिलाएं ही रोजगार या इससे जुड़ी गतिविधियों में शामिल रहीं, जबकि पुरुषों में यह आंकड़ा 71% है.

ग्लोबल है भेदभाव की समस्या (Salary Discrimination is Global)

ये अकेले भारत की बात नहीं है. भेदभाव दुनिया के हर कोने में है. दुनिया का अगुआ माने जाने वाले अमेरिका के फेडरल डेटा के अनुसार, साल 2021 में पूर्णकालिक महिला कर्मचारियों का औसत वेतन पुरुषों के वेतन का लगभग 83 फीसदी था. साथ ही महिलाएं लगभग हर क्षेत्र में पुरुषों की तुलना में कम कमाती हैं.

हालांकि, अमेरिका में भी सैलरी में लिंग आधारित भेदभाव पाटने की कोशिश चल रही है. अमेरिका के कुछ राज्यों और नगरों में समान वेतन वाले कानून को अपनाया जा रहा है. इस कड़ी में न्यूयॉर्क सिटी का भी नाम जुड़ गया है, जहां नवंबर, 2022 के बाद से नियोक्ताओं के लिए सैलरी से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण आंकड़ों का खुलासा करना जरूरी हो जाएगा.

भारत के स्टार्टअप की स्थिति

बेंगलुरु स्थित फिनटेक कंपनी रेजरपे (Razorpay) की हाल ही में एक रिपोर्ट आई. रिपोर्ट बताती है कि देश के स्टार्टअप ईकोसिस्टम में लिंग के आधार पर सैलरी में भेदभाव बढ़ रहा है. इसके आंकड़े अक्टूबर, 2021 से सितंबर, 2022 तक करीब 20 सेक्टर के 1000 से ज्यादा भारतीय स्टार्टअप में 25,000 कर्मचारियों के पेरोल डेटा पर आधारित हैं.

रिपोर्ट से पता चलता है कि देश के स्टार्टअप में महिलाओं की सैलरी बढ़ने की रफ्तार पुरुषों के मुकाबले कम है. पुरुषों द्वारा अर्जित वेतन में वृद्धि 29 फीसदी है, जबकि महिलाओं में यह आंकड़ा 22 फीसदी है. सैलरी ब्रैकेट बढ़ते जाने पर यह गैप और बढ़ता जाता है.

क्या कहता है देश का कानून?

समान काम के लिए हर किसी को एक जैसी सैलरी मिल सके, इसके लिए 1976 में कानून भी बना. समान पारिश्रमिक कानून, 1976 कहता है कि कोई भी नियोक्ता अपने संस्थान में वेतन वगैरह देने में लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा. साथ ही समान वेतन देने के मकसद से किसी भी कर्मचारी के वेतन को कम नहीं करेगा. माने ऐसा न हो कि महिलाओं को समान वेतन देने के चक्कर में पुरुषों की सैलरी ही कम कर दी जाए, लेकिन कानून बनने के 46 साल बाद भी महिलाओं को उनका वाजिब हक नहीं मिल रहा. जाहिर है, लिंग के आधार पर भेदभाव पाटने के लिए संस्थानों को खुद ही आगे आना होगा.

भारत में कब बदलेगी तस्वीर?

BCCI ने तो बस एक छोटी-सी पहल करके सबका ध्यान खींचा है. अभी तो हर तरह के खेलों से लेकर फिल्म इंडस्ट्री तक और खेत-खलिहानों से लेकर AC दफ्तरों तक में बड़े कदम उठाए जाने की दरकार है.

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भारत में साल 2023 से भेदभाव की तस्वीर कुछ बदलने की उम्मीद की जा सकती है. दरअसल, अगले साल से देश की टॉप-1000 कंपनियों के लिए अपने कर्मचारियों से जुड़े कुछ डेटा को सार्वजनिक करना अनिवार्य हो जाएगा. कंपनियों को बताना होगा कि उनके यहां अलग-अलग लेवल पर काम करने वाले पुरुषों और महिलाओं की औसत सैलरी कितनी है. डेटा सामने आने से कंपनियों पर इस बात का दबाव बढ़ जाएगा कि वे वेतन-भत्ते आदि में लिंग के आधार पर भेदभाव न करें.

भेदभाव खत्म करना क्यों जरूरी?

इस तरह का भेदभाव खत्म करना क्यों जरूरी है, ये समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है. पहले महिलाओं का बेवजह नुकसान देखिए. घर के कुछ खास काम महिलाओं के जिम्मे छोड़े जाने से उन्हें एक और बड़ा नुकसान होता है. वे अपने लिए कोई ऐसा जॉब ढूंढने को मजबूर हो जाती हैं, जिसमें उन्हें थोड़ी आसानी रहे.


बड़े संस्थानों में पहुंचने पर भी महिलाओं को ऊंचे पदों पर बहुत कम जगह दी जाती है. इन वजहों से महिलाओं का आर्थिक नुकसान तो होता ही है. साथ ही देश की जीडीपी में भी आधी आबादी की भागीदारी स्वाभाविक तौर पर कम हो जाती है.