महंगाई बहुत बढ़ गई है. खाने का तेल सस्ता हो गया है. किसान को प्याज की तो कीमत ही नहीं मिल रही है. ये 3 लाइनें ऐसी हैं जो हम आमतौर पर अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में सुनते हैं और कई बार इस पर बहस भी करते हैं, लेकिन ये सिर्फ 3 लाइनें नहीं हैं बल्कि 3 कंडीशंस हैं. इकोनॉमिक कंडीशंस. इनका नाम है- इन्फ्लेशन (Inflation), डिसइन्फ्लेशन (Disinflation) और डिफ्लेशन (Deflation).
हर महीने रिटेल महंगाई (CPI) और होलसेल महंगाई (WPI) के आंकड़े आते हैं. हम सुर्खियां देखते हैं और उसके अनुसार खुश होते हैं या दुखी होते हैं. एक सवाल मन में जरूर उठता होगा कि ये आंकड़े कैसे निकाले जाते हैं और ये आंकड़े क्या बताते हैं? इन आंकड़ों को समझने के लिए भी ये जरूरी है कि हम इन्फ्लेशन, डिसइन्फ्लेशन और डिफ्लेशन को पहले समझ लें.
इन्फ्लेशन को सामान्य शब्दों में महंगाई कहते हैं. वही महंगाई जिसकी वजह से आपके रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों की कीमतें बढ़ जाती हैं. एक निश्चित समय अवधि में खाने के सामान, कपड़े, फ्यूल, सर्विसेज और अन्य चीजों की कीमतों में हुई बढ़ोतरी को ही इन्फ्लेशन कहा जाता है. भारत में इस महंगाई को 2 पैमानों या यूं कहें 2 इंडेक्स से दर्शाया जाता है. कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (CPI) और होलसेल प्राइस इंडेक्स (WPI).
CPI उस महंगाई को दिखाता है जो सीधे कंज्यूमर पर असर डालती है यानी रिटेल कंज्यूमर, जिस बढ़ी हुई या घटी हुई कीमत पर सामान या सर्विसेज ले रहा है उसे CPI कहा जाता है. दूसरी तरफ, जब कोई होलसेल बिजनेस, किसी छोटे बिजनेस को थोक के भाव में सामान बेचता है तो एक निश्चित समय अवधि में उस सामान की कीमत में आए बदलाव को WPI के जरिए दर्शाया जाता है.
भारत में महंगाई के इन आंकड़ों को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (Ministry of Statistics and Programme Implementation) जारी करता है.
महंगाई बढ़ने से गुड्स और सर्विसेज की कीमतें बढ़ जाती हैं जिसका सीधा असर करेंसी की परचेजिंग पावर पर होता है. साफ है कि कीमतें बढ़ने पर हम एक निश्चित राशि में पहले से कम चीजें ही खरीद पाएंगे.
इसका असर ये होता है कि लोगों की कॉस्ट ऑफ लिविंग काफी बढ़ जाती है और इससे देश को इकोनॉमिक ग्रोथ पर भी बुरा असर पड़ता है. अब ऐसा भी नहीं है कि इकोनॉमी में इन्फ्लेशन होना ही नहीं चाहिए. एक लिमिट तक इन्फ्लेशन हमारी इकोनॉमी को गतिशील बनाए रखने के लिए जरूरी भी है.
रिजर्व बैंक (RBI), महंगाई को नियंत्रण में रखने में सबसे अहम भूमिका निभाता है. RBI ने महंगाई दर के लिए 2 से 4% की एक लिमिट तय की है और इसके ऊपर 2% का अतिरिक्त टॉलरेंस बैंड भी रखा है यानी कुल मिलाकर देखें तो RBI का लक्ष्य रहता है कि रिटेल महंगाई 2% से 6% के बीच ही रहे.
RBI अपनी मॉनिटरी पॉलिसी के जरिए महंगाई पर दरों में बदलाव कर के कंट्रोल करता है. RBI के साथ सरकार भी टैक्सेशन और फिस्कल पॉलिसी में बदलाव कर के महंगाई को काबू में रखने पर काम करती है.
बढ़ती हुई महंगाई की रफ्तार जब कम होती है तो उस स्थिति को डिसइन्फ्लेशन कहते हैं. मान लीजिए कि महंगाई 2% से बढ़ते-बढ़ते 7% तक गई और इसके बाद महंगाई दरों में गिरावट का सिलसिला शुरू हुआ या यूं कहें कि महंगाई कम होनी शुरू हुई.
महंगाई दर में आई इस गिरावट की स्थिति को डिसइन्फ्लेशन कहते हैं. इस स्थिति में महंगाई दर में गिरावट भले ही आती है लेकिन ये दरें 0% से ऊपर ही होती हैं.
जहां एक तरफ डिसइन्फ्लेशन में महंगाई कम होती है जाती है लेकिन ये दरें शून्य से ऊपर रहती हैं. वहीं दूसरी तरफ डिफ्लेशन की स्थिति में महंगाई में लगातार इतनी गिरावट आती है कि महंगाई दर 0% से भी नीचे यानी निगेटिव में चली जाती है. डिफ्लेशन की स्थिति इकोनॉमी के लिए काफी खतरनाक होती है क्योंकि इससे इकोनॉमिक ग्रोथ रुक जाती है. आमतौर पर ऐसी स्थिति वित्तीय अस्थिरता के वक्त आती है जब गुड्स और सर्विसेज की डिमांड बिल्कुल कम हो जाए और इसके साथ बढ़ी हुई बेरोजागारी की वजह लोगों की परचेजिंग पावर भी खत्म हो गई हो और चीजें जरूरत से ज्यादा सस्ती हो जाएं.