म्यूचुअल फंड रिटर्न में कैसे सेंध लगाता है एक्सपेंस रेश्यो, समझिए कैलकुलेशन

AMFI के आंकड़ों के मुताबिक 31 मई 2023 को भारत की म्यूचुअल फंड इंडस्ट्री का कुल असेट अंडर मैनेजमेंट (AUM) बढ़कर 43.20 लाख करोड़ रुपये हो चुका था.

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देश के आम निवेशकों में म्यूचुअल फंड्स (Mutual Funds) की लोकप्रियता पिछले करीब एक दशक में किस कदर बढ़ी है, इसका अनुमान इंडस्ट्री के आंकड़ों से लगाया जा सकता है.

10 साल में 5 गुना बढ़ा MF इंडस्ट्री का AUM

एसोसिएशन ऑफ म्यूचुअल फंड्स (AMFI) के आंकड़ों के मुताबिक 31 मई 2023 को भारत की म्यूचुअल फंड इंडस्ट्री का कुल एसेट अंडर मैनेजमेंट (AUM) बढ़कर 43.20 लाख करोड़ रुपये हो चुका था. इसकी तुलना में 10 साल पहले यानी 31 मई 2013 को इंडस्ट्री का कुल AUM महज 8.68 लाख करोड़ रुपये था. यानी दस साल के दौरान म्यूचुअल फंड इंडस्ट्री का AUM करीब 5 गुना बढ़ गया.

इस बढ़ती लोकप्रियता की वजह है कम रिस्क में बेहतर रिटर्न देने की म्यूचुअल फंड की क्षमता. लेकिन, निवेशक के सामने बाजार में मौजूद तमाम म्यूचुअल फंड्स में से सही फंड चुनने की चुनौती हमेशा बनी रहते है. इस बारे में कोई भी फैसला करते समय निवेश पर मिलने वाला रिटर्न काफी अहमियत रखता है. लेकिन फंड के असली रिटर्न को जानने के लिए उसके टोटल एक्सपेंस रेश्यो (TER) पर गौर करना बेहद जरूरी है. 

नेट रिटर्न को घटाता है एक्सपेंस रेश्यो

टोटल एक्सपेंस रेश्यो (TER) को आम बोलचाल में सिर्फ एक्सपेंश रेश्यो भी कहते हैं. इसका मतलब है वो फीस, जो एसेट मैनेजमेंट कंपनी (AMC) म्यूचुअल फंड में लगाए गए पैसों को सही ढंग से मैनेज करने के एवज में आपसे वसूल करती है. जाहिर है एसेट मैनेजमेंट कंपनी आपके फंड का जितना बड़ा हिस्सा एक्सपेंस रेश्यो के रूप में काट लेगी, फंड पर नेट रिटर्न उतना ही कम हो जाएगा. रिटर्न पर एक्सपेंस रेश्यो के इस असर को कुछ उदाहरणों की मदद से समझते हैं.

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रिटर्न में एक्सपेंस रेश्यो की ‘सेंधमारी’ 

अगर आपने दो फंड्स में 1-1 लाख रुपये का निवेश किया और दोनों का सालाना ग्रॉस रिटर्न 11% है. लेकिन फंड A का एक्सपेंस रेश्यो 0.5% और फंड B का एक्सपेंस रेश्यो 1% है. ऐसे में ग्रॉस रिटर्न बराबर होने के बावजूद फंड A का नेट रिटर्न 10.5% और फंड B का नेट रिटर्न 10% होगा. यानी फंड A में 1 लाख रुपये निवेश करने पर जहां एक साल में 10,500 रुपये मिलेंगे, वहीं फंड B में नेट रिटर्न 10,000 रुपये ही होगा. दोनों फंड्स के एक्सपेंश रेश्यो में जितना ज्यादा अंतर होगा, उनके नेट रिटर्न में भी उतना ही अधिक फर्क देखने को मिलेगा. 

जैसा ऊपर दिए उदाहरण से साफ है, एक्सपेंश रेश्यो में 0.5% का फर्क एक साल के रिटर्न में बहुत कम नजर आता है. लेकिन, यही अंतर लंबी अवधि के दौरान कंपाउंडिंग इफेक्ट की वजह से काफी अधिक हो जाता है. इस हम अगले उदाहरण में समझने की कोशिश करेंगे. 

लंबे समय के निवेश पर एक्सपेंश रेश्यो का असर

अगर आप हर साल 1 लाख रुपये की रकम किसी ऐसे रिटायरमेंट फंड में 30 साल तक निवेश करते हैं, जिसमें एक्सपेंस रेश्यो 1% है, तो 8% के औसत सालाना रिटर्न (यानी 7% के नेट सालाना रिटर्न) के आधार पर 30 साल में आपको 30 लाख रुपये के कुल निवेश पर करीब 1.01 करोड़ रुपये का कॉर्पस प्राप्त होगा. ऐसा कंपाउंडिंग के असर के कारण होगा. 

लेकिन, अगर आप हर साल यही 1 लाख रुपये किसी ऐसे रिटायरमेंट फंड में निवेश करते हैं, जिसका औसत सालाना रिटर्न तो 8% ही है, लेकिन एक्सपेंस 2% है, तो क्या होगा? ऐसी स्थिति में आपका नेट सालाना रिटर्न 6% रह जाएगा, जिससे उन्हीं 30 लाख रुपयों के निवेश पर 30 साल बाद आपको मिलने वाला कॉर्पस करीब 83.80 लाख रुपये होगा. 

यानी एक्सपेंस रेश्यो 1% ज्यादा होने पर 30 साल बाद आपको मिलने वाली रकम करीब 16 लाख रुपये कम रह जाएगी! ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि लंबे वक्त के दौरान रिटर्न की तरह एक्सपेंस रेश्यो भी अपना निगेटिव कंपांउंडिंग इफेक्ट दिखाता है. 

मतलब साफ है - हो सकता है इस वक्त आपको एक्सपेंस रेश्यो में 1 या 0.5% का अंतर बहुत कम या नजरअंदाज करने लायक लग रहा हो, लेकिन लंबी अवधि के दौरान यह अंतर आपके नेट रिटर्न पर काफी असर डाल सकता है. इसीलिए म्यूचुअल फंड में निवेश करते समय एक्सपेंस रेश्यो की अनदेखी कभी नहीं करनी चाहिए.

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